कान्हा जी के आँसू

भक्ति में प्रेम होता है और प्रेम में भक्ति।अगर भाव इतनी प्रभावशाली होता है तो सोचो जिनसे भाव की डोरी लग जाती वो रिश्ता कितना ज्यादा प्रभावित करेगा जीवन को।एक ऐसी जोड़ जिसके जुड़ने से सारे रिश्ते जुड़े हुए लगते है और उसके बिना,कुछ अस्तित्व नहीं है कोई रिश्तों की। जो भक्ति के रंग में एक बार रंग चुका उसको सारा दुनिया जिंदगी भर रंगीन लगता है।

जब रोहिणी की बिदाई हो रही थी कान्हा खूब रोने लगता है।रोहिणी के ससुराल वाले खूब धनवान और प्रभावशाली थे।वो मेहनत और अपना कर्म को भगवान मानते थे।इसमें कोई बुराई नहीं है क्यूं की श्रीकृष्ण खुद गीता में यह बोले थे।अपना रुतबा और ओहदा को लेकर गुरूर भी कुछ कम ना था।पर गुरूर को गीता में कभी प्रश्रय नहीं दिया गया है।जीवन का मूलाधार तो प्रेम है जो प्रेम रोहिणी ने सिर्फ अपनी कान्हा से की थी।उसको प्रेम तब हुआ जब प्रेम के मतलब ही उसे नहीं पता था।जब वो चार साल की थी तब उसके पापा के देहांत हो गया।उससे डेढ़ साल छोटा उसके भाई शिवांग था।फैक्ट्री में काम करते समय उसके पापा को करंट लगने की वजह से मौके पर ही उनका मौत हो जाता है।जीवन जीने के लिए अब बस एक साधन था फूलों का व्यापार।उसकी मां तरह तरह की फूल लाकर माला बनाती है और खुद बाजार पर जाकर बेचकर आती है।कल्याणी उसे बार बार पूछती है पापा के बारे में तो मां बोलती है – “बेटा तुम्हारे पापा को कान्हा जी से ज्यादा प्यार हो गया था इसलिए वो हमे छोड़ कर अब वो उनके पास रहने लगे है।”यह सुन वो कुछ सोचने लगती है और बिना कुछ बोले वहां से चली जाती है।

शाम हो गई पर कल्याणी घर नहीं लौटी थी।उसके मां जो कि अभी अभी इतनी बड़ी हादसा से उभरने की कोशिश में असफल हो रही थी,उसके अंदर मानो भय तांडव मचाने लगा।गली,बाजार, पड़ोश कहीं जगह ना छोड़ी उसे ढूंढने में।वहां पर एक कान्हा जी के मंदिर था,वहीं पर माथा टेकने लगी।हाथ जोड़ कर बोलने लगी,- आप मुझसे मेरे जीने की सहारा तो छीन लिए पर अब जीने की वजह को तो मेरे लिए छोड़ दीजिए। मैं जैसे तैसे करके जी तो रही थी ना कान्हा।
कान्हा जी कुछ नहीं बोले हमेशा के तरह।निराश होकर घर लौटना पड़ा सुमित्रा को।घर पहुंची तो मानो घर में अदृश्य रौनक था।दोनों बच्चे खेल रहे थे।सुमित्रा खूब जोर से रोने लगी मानो सारे दर्द और आशंका को यहीं बाहर निकाल देगी।तब कल्याणी दौड़कर मुस्कुराते हुए उसके पास आई और उसके हाथ को खींचते हुए बोली – मां देखो मैं किनको साथ लाई हूं।
सुमित्रा उतना ज्यादा उतावला नहीं हुई,पर उतावला पन काफी ज्यादा कल्याणी के हाव भाव में था।
“मां देखो मैं कान्हा जी को ले आई अपने साथ।तुम बोल रहे थे ना कि पापा उनको ज्यादा प्यार करते थे इसलिए वो उनके पास चले गए,अब हमलोग उनको इतना ज्यादा प्यार करेंगे,वो एक दिन मजबुर हो जाएंगे हमे प्यार करने के लिए और हमेशा हमारा हो कर रहेंगे।इस तरह पापा भी हमारे पास रहेंगे।पर तुम कभी दुःखी ना होना।
सुमित्रा वो मासूमियत देख एक पल के लिए मुस्कुराने लगी,और शायद यहां से आरंभ हुआ था उनके जीवन में खुशियों के दौर।सुमित्रा अपनी भय और गुस्सा को शांत कर कल्याणी के माथा चूमने लगी।

ऐसे ही धीरे धीरे कान्हा जी उनके परिवार का हिस्सा हो गए थे।कल्याणी तो मानो उनको अपना मन बना ली थी।रात को घंटों उनसे बात करती थी।कुछ भी क़िस्सा हो पहले उनको सुनाती थी। हर खुशी और गम में बस कान्हा उसके साथी थे।उमर के साथ लगाव बढ़ने लगी।सुमित्रा भी उन्हें खिलाए बिना कुछ नहीं खाती थी।बाहर के कोई कोई तो उनके परिवार को पागल भी समझते थे क्यूं कि उनके हर बातों में कान्हा जी का जिक्र था।

देखते देखते समय बीत गया बिना कोई उलझन में।मानो कान्हा जी के बांसुरी की धुन पर मिट जाती थी सारी दुःख,परेशानी और सुलझ जाती थी उनके जिंदगी के सारे उलझने।वक्त लिख रहा था एक नया दास्तां नया अफसाना।कल्याणी पार कर चुकी थी जिंदगी की बीस शावन।अब खिलने थे उनके जिंदगी में प्यार के फूल।कान्हा के प्यार में जोगन हुई कल्याणी के जौवन खिल उठ रहा था,मानो अभी अभी सूरजमुखी अपनी पंखुड़ियों को फैलाना शुरू किया है।पर उसके जीवन के सूरज तो बस कान्हा जी थे।सुंदर मन लुभान चेहरा उसके साथ मध्यम शरीर,कद काठी पूरा सठिक उसमें पढ़ाई में भी काफ़ी होशियार थी कल्याणी।ये लहज़ा ये तरीके कान्हा जी के दिन थे।उनसे जो खुद को जोड़ दे सारी अच्छी चीजें खुद ब खुद जोड़ जाते है।

उसे तो और पढ़ना था।आगे बढ़ना था ।ग्रेजुएशन के बाद यूनिवर्सिटी में पोस्ट ग्रेजुएशन करना था।पर जब हितेश के घर से रिश्ता आया सुमित्रा ने कान्हा जी के मर्जी सोच आगे बढ़ने को सोची।इतना अच्छा घर,पढ़ाई तो आगे हो सकता पर ऐसे रिश्ते बार बार नहीं आते।वो लोग भी कल्याणी जैसे शांत स्वभाव लड़की ढूंढ रहे थे।उसको देख रिश्ता पक्का कर दिए और दो दिन के बाद तिलक, फिर एक दस दिन बाद शादी के तारिक भी पक्का कर दिए।लड़की वाले तो बस हां ही करते है हमेशा से।जोर सोर से तैयारी शुरू हुई।कल्याणी लेकिन खुश नहीं हो पा रही थी।शादी के समय पास आ गई।खूब धूमधाम से शादी हुई और फिर बिदाई के वक्त आ गया।वो पहले कान्हा के पास गई,बहत बातें की हमेशा के तरह।कान्हा के आखों में पहली बार आसुं देख फुट फुट कर रो रही थी वो।
” कान्हा तुम तो वहीं चाहते थे,अब रोने से क्या होगा।तुम तो रोक पाते थे ना ये सब?अगर तुम नहीं रोके,इसका मतलब तो तुम्हारा मर्जी हीं समझू ना!अब मुझे तुम्हारे मर्जी को तुम्हारा आशीर्वाद समझने दो। मैं कोशिश करूंगी कि तुम्हारा संस्कार पर खरी उतर पाऊं। मैं तुम्हारा गुरूर बनना चाहती हूं और तुम मेरे बाद हिम्मत बनना।”
कान्हा जी के आसुं पोंछ वहां से जाने लगी कल्याणी।पीछे मुड़कर एकबार भी ना देखी,शायद कमज़ोर हो जाती वो।
मन में माफ़ी मांग बोल रही थी कान्हा जी को,
” यहां तुम्हारे बहत जरूरत है। सबके खयाल रखना तुम।”

बिदाई चल रही थी।सुमित्रा खूब रोने लगी, कल्याणी को पकड़ कर।अपने सीने में लगाकर लुटा रही थी ममता।सुमित्रा ने अचानक से दौड़ दौड़ कर गई और कान्हा जी को अपने साथ लेकर कल्याणी के हाथ पर पकड़ा दी।कल्याणी बोल रही थी,”नहीं मां कान्हा को अपने घर में रहने दो,उसे तुम लोगों के और तुम्हे उसकी जरूरत है। मैं उसके प्यार के साथ जा रही हूं।”तभी उसके भाई आकर छीन लेता है कान्हा जी को और बोलता है,
” दीदी यहां तो जो पागलपन करती थी चलता था,पर वो अब अपनी ससुराल में ये सब करने से क्या होगा मां।आप ये गलती ना करे।पहले उसके घर तो बसने दो।”

यह बोल छीन ले आता है कान्हा जी को।कल्याणी को ऐसा लगा मानो कोई उसकी शरीर से दिल को उखाड़ फेंकने की कोशिश कर रहा है।अपने बहती आसुं को खुद के अंदर समा ली वो।

कान्हा बीन जीना उसके लिए बीन पानी के मछली की हालत के बराबर बना दिया।हितेश बहत अच्छा था पर संपूर्ण नस्तिक।कल्याणी बहत याद करती थी अपनी कान्हा को।आसुं खुद ब खुद बह जाते थे।वो बहत कोशिश करती थी अपना कर्तव्य ठीक से कर पाए।सास ससुर के सेवा के साथ पति के भी मन मुताबिक सबकुछ करती थी।पर कान्हा जी के एक दर्शन के लिए तरसती थी।उधर कान्हा जी के मूर्ति से आसुं बहना कभी रुकता नहीं था।

तीन महीने हो गया वो नहीं देखी थी अपनी कान्हा को।उसके लिए तीन युग था।हितेश उसे कभी कोई मंदिर भी नहीं लेता था।उनके घर तो बस पग फेरा के वक्त एक दिन के लिए ही गए थे।पर तब भी कान्हा जी से मिल नहीं पाई थी।

उस दिन धूप के समय था।पर अचानक काला बादल छा गया।चारो तरफ़ एक वीराना सा एहसास।देखते देखते रात होने वाला है।हितेश ऑफिस से घर नहीं आया था पर खबर पहले आ पहुंचा।उसके गाड़ी तूफ़ान के वजह से रास्ते से भटक कर खाई में गिर गया।उसमें उसके ससुर भी थे।

यह सुन नंगे पैर भागने लगी कल्याणी। कहां जाएगी पता नहीं।कितनी दूर भागेगी वो भी पता नहीं।किसको ढूंढ रही है वो भी भुल गई थी कुछ वक्त के लिए।भागते गई भागते गई पर कुछ ना मिला,कोई नहीं मिले।फिर उल्टा पैर घर लौट आई।अपने रूम पर गई।वहां कान्हा जी थे,उसे बोले –
” सब ठीक है ,किसी को कुछ नहीं हुआ है तुम परेशान ना हो।पहले शांत हो जाओ।और हां मैं नहीं रह पाया तुम्हारे बिना इसलिए आ गई।ये तो जानते ही हो ना, ‘ हम जिससे प्यार करते है उसको पास चले आते है,इसलिए मैं आ गया कल्याणी,प्यार में मजबुर हो कर आ गया।”
कल्याणी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था।तूफ़ान रूक चुकी थी ; बाहर के और अंदर के भी।जब कान्हा जी बोल दिए तो परेशान होने की कोई वजह ही नहीं है।अपनी सासू मां के पास गई,उनके हाथ पकड़ बोल रही थे,
” ममी जी देखिए कौन आया है,कान्हा जी आए है ममी।पापा और वो पूरा ठीक है।”
कल्याणी के सास चौक जा रहे थे उसके यह बहकी बहकी बातें सुनकर।वो अपनी रूम में कान्हा जी के तरफ़ उंगली दिखा रही थी पर वहां तो कुछ नहीं था बस एक लैंप लाइट।
उसे अपने गले लगाकर उसके सासू मां बोल रहे थे,
” मुझे पता है तुम सदमे में हो,पर सब ठीक है। उनको एक खरोच भी नहीं आया है।ताजुब है कि गाड़ी के हालात देखने लायक नहीं है।”
खुद को संभालकर बोली कल्याणी,

” मां मेरे ऊपर भरोसा कीजिए,मेरे कान्हा जी मुझे खुद बता दिए थे कि पापा और हितेश ठीक है , मैं सदमे में नहीं हूं बल्कि खुश हूं,इतने दिन बाद आज मेरे कान्हा जी आए है।”

उसी वक्त हितेश आ पहुंचा।कल्याणी उसको गले से लगा लिया।उसके मां ने उसके माथा चूमने लगी।

तब हितेश ने बोला,
” आज तो मरते मरते बच गए हम,पर तुम्हारे कान्हा जी को मैं संभाल नहीं पाया। उनको साथ लेकर आ रही थी तुम्हारे लिए पर वो गाड़ी में रह गए,पर तुम चिंता मत करना मैं फिर से ले आऊंगी तुम्हारे लिए।”

कल्याणी कुछ नहीं बोली बस कान्हा जी के तरफ़ उंगली दिखा दी,,,

हितेश चौक कर बोला,
” आरे यही तो तुम्हारे कान्हा जी है जो मैं ला रहा था,पर,,,,।”

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